“सुन्दरकाण्ड कथा”

यह चरित कलिमलहर जथामति दास तुलसी गायउ   ।
सुख भवन संसय समन दवन विषाद रघुपति गुनगना  ।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ।।

                            
        सुन्दरकाण्ड कथा की महिमा के विषय में स्वयं गोस्वामीजीने काण्ड के अंत में लिख दिया है कि यह चरित्र कलियुग के मल को हरने वाला है । इसके नित्य गान, श्रवण एवं मनन से सुखों की प्राप्ति संशयो का शमन तथा मंगल की प्राप्ति होती है ।
इस काण्ड के शीर्षक पर जब दृष्टि करते है तो एक विचित्रता-सी प्रतीत होती है । क्योंकि मानसजी के सभी काण्ड के नाम (शीर्षक) या तो कोई “स्थलविशेष” के साथ जुडे हुए है, या तो “अवस्थाविशेष”, या तो “प्रसंगविशेष” को अनुलक्षित करते है ।
यथा -

बालकाण्ड, उत्तरकाण्ड - भगवान रामचन्द्रजी की बाल्यावस्था और उत्तरावस्था को निरुपित करता है । (अवस्था विशेष)
अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड – स्थलविशेष को सूचित करता है ।

लंकाकाण्ड -

                     लंका मे जो युद्ध हुआ उस “प्रसंगविशेष” को सूचित करता है । इस प्रकार सात काण्डो में से छ काण्डो का नामकरण किया गया वह बडी सरलता से समझ मे आ जाते है । लेकिन सुन्दरकाण्ड शीर्षक में अदभूत वैशिष्टय है । यह शीर्षक स्थान-विशेष को भी सूचित करता है । हम सभी जानते है कि -

“गिरि त्रिकूट उपर बस लंका”

त्रिकूटाचल पर्वत जिस पर लंका नगरी बसी थी । त्रिकूटाचल पर्वत की तीन चोटी (शिखर) थी –
-        नीलाचल पर्वत की चोटी,
-        शुबेलाचल पर्वत की चोटी,
-        सुन्दराचल पर्वत की चोटी


सुन्दराचल पर्वत की चोटी जहा पर अशोकवाटिका है । सुन्दरकाण्ड का प्रायः चरित्र सुन्दराचल पर्वत पर स्थित अशोकवाटिका मे हुआ है । इस अर्थ में इस काण्ड का नामकरण स्थानविशेष या तो स्थलविशेष को सूचित करता है । यह शीर्षक “अवस्थाविशेष” भी है । हम सभी जानते है यह कथा ज्ञानघाट पर भगवान सदाशिवजी पार्वतीजी को सुना रहे है । सुन्दरकाण्ड की कथा कहते कहते स्वयं भगवान शिवजी भी ध्यानमग्न हो गए ।

प्रभु कर पंकज कपि के सीसा ।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ।।


सावधान मन करि पुनि संकर ।
लागे कहन कथा अति सुन्दर ।।


कहने का तात्पर्य यह है कि जिस कथा एवं प्रसंगो के द्वारा स्वयं भगवान सदाशिवजी भी ध्यानस्थ हो जाए वह काण्ड तो सुन्दर ही होगा । इस आधार पर सुन्दरकाण्ड नामकरण अवस्थाविशेष और प्रसंगविशेष को भी अनुलक्षित करता है ।

सुन्दरकाण्ड सुन्दर होने के अनेक कारण है । एक और कारण यहा संक्षिप्त में प्रस्तुत है । इस काण्ड का केन्द्रबिंदु विषय “भक्ति” है । रामचरितमानस में श्री सीताजी स्वयं भक्ति स्वरुपा है । प्रमाण कई जगह प्राप्त होता है ।

यथा – लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु ।
  ग्यान सभा जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु ।। -२.२३९ रा.च.मा.


सुन्दरकाण्ड भक्तसम्राट श्री हनुमानजी की भक्ति यात्रा है । श्रीहनुमानजी न केवल भक्ति माता का दर्शन करते है, बल्कि उनका आशिर्वाद पाकर कृत्कृत्यता का अनुभवभी करते है । मानसकार स्वयं इस काण्ड के मंगलाचरण में इसका संकेत करते है ।

“भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंडव निर्भरा मे”

अर्थात्, हे रघुकुल श्रेष्ठ ! मुझे निर्भरा भक्ति का वरदान दो ।
श्रीहनुमानजी प्रभु श्रीरामजी के पास आते है तो एक ही याचना करते है ।

नाथ भगति अति सुखदायनी ।
देहु कृपा करि अनपायनी ।।


हे नाथ ! मुझे अत्यन्त सुख देनेवाली अपनी शाश्वती भक्ति कृपा करके दीजिये ।
भगवान सदाशिवजी ने यह स्वामी-सेवक संवाद का फल कह दिया ।

यह संवाद जासु उर आवा ।
रघुपति चरन भगति सोई पावा ।।


विभीषणजीबी भगवान रघुनाथजीकी शरण में आये भक्ति की ही याचना करते है ।

अब कृपाल निज भगति पावनी ।
देहु सदा सिव मन भावनी ।।


हे कृपालु ! शिवजी के मनको सदैव प्रिय लगनेवाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिये ।
        कहने का तात्पर्य यह भक्ति का काण्ड है । भगवान अरण्यकाण्ड में शबरीजी को नवधा भक्ति सुनाते समय कहते है – हे भामिनि । मेरी बात सुन ! मैं तो केवल एक भक्तिही का सम्बन्ध मानता हूँ । मानउँ एक भगति कर नाता ।

श्रीतुलसीदासजी, श्रीहनुमानजी, श्रीविभीषणजी सुन्दरकाण्ड में भगवान के सन्मुख हो कर भक्ति का वर पाते है । इसलिए यह काण्ड हमारे जीवन में रघुपति भक्ति प्रदान करनेवाला है ।

मानस सत्संग द्वारा “त्रिदिवसीय” या “पंचदिवसीय” सुन्दरकाण्ड कथा गाई जाती है । यह कथा प्रधानतः श्री रामचरितमानस के आधार पर होती है । साथ – साथ व्यासपीठ से वाल्मीकिरामायण सुन्दरकाण्ड एवं अध्यात्मरामायण सुन्दरकाण्ड के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी होता है । कथा के प्रसंगो पात्र, संवाद, वर्णन इत्यादि का यथा समय यथा समज निरुपण होता है । कथा के दौरान संगीतज्ञ वृंद के साथ भजन – धून, संकीर्तन का भी समन्वय होता है । भगवत्कृपा – करुणा से मानस सत्संग के द्वारा व्यासपीठ से बार बार सुन्दरकाण्ड कथा गाने का अवसर प्राप्त हुआ है ।